बिना चर्चा के विधेयक पास होने के खतरे

अजीत द्विवेदी
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, पूर्व केंद्रीय वित्त व गृह मंत्री और राज्यसभा सांसद पी चिदंबरम ने छह अगस्त को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ अखबार के अपने साप्ताहिक स्तंभ में ‘लेजिस्लेटिंग ऑथोरिटेरियनिज्म’ शीर्षक से लेख लिखा। इस शीर्षक का मोटा-मोटी अनुवाद यह है कि अधिनायकवाद को विधायी रूप देना या विधायी अधिनायकवाद। उन्होंने अपने लेख में संसद में पेश हुए या पास हुए तीन विधेयकों का जिक्र किया।उन्होने बताया कि कैसे इन विधेयकों के जरिए ऐसे कानून बनाए जा रहे हैं, जो कानूनी रूप से सही नहीं हैं। उन्होंने सिर्फ तीन विधेयकों का जिक्र किया लेकिन इनके अलावा भी कई विधेयक हैं, जिनसे केंद्र सरकार राज्यों के अधिकार छीन रही है, संघवाद की अवधारणा को चोट पहुंचा रही है और लोगों के निजता के अधिकार को भी चोट पहुंचा रही है। सरकार ने जिस मनमाने तरीके से ये विधेयक तैयार किए और जिस अंदाज में इसे पास कराया उससे देश की संघीय और संवैधानिक व्यवस्था के सामने जैसी चुनौतियां पैदा हुई हैं उनके बारे में चिदंबरम ने लिखा है। लेकिन सवाल है कि जो बातें उन्होंने लेख में लिखी हैं, वह बात उन्होंने संसद में क्यों नहीं कही? उनकी पार्टी कांग्रेस, जो संसद के दोनों सदनों की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है उसने वहां इन बातों को क्यों नहीं उठाया? क्या इसलिए कि उनकी पार्टी मणिपुर के मसले पर प्रधानमंत्री से बयान की मांग कर रही थी और सदन की कार्यवाही में हिस्सा नहीं ले रही थी?

जितना बड़ा खतरा चिदंबरम को इन विधेयकों के पास होने से दिख रहा है उतना ही बड़ा खतरा संसद में विधेयकों पर चर्चा नहीं होना या विपक्षी पार्टियों का उस चर्चा में हिस्सा नहीं लेना भी है। ऐसा लग रहा है विपक्षी पार्टियां विधायी लड़ाई संसद के बाहर लड़ रही हैं। यह सही है कि सरकार के पास जिस तरह का बहुमत है उसे देखते हुए विपक्षी पार्टियां विधेयक को रोक नहीं सकती हैं। लेकिन संसद के अंदर अगर विपक्षी पार्टियां बहस में हिस्सा लेतीं तो वे विधेयकों की कमियां सामने लातीं। अपनी तरफ से संशोधन पेश करतीं, बेशक वह संशोधन नहीं मान्य होता। विधेयक की कमियों के बारे में लोगों को जागरूक करतीं। इसके खतरे बतातीं। लेकिन जब संसद में बिल पास हो रहे थे तब विपक्ष संसद परिसर में नारेबाजी कर रहा था और बिल पास हो जाने के बाद विपक्षी नेता लेख लिख कर या ट्विट करके उसका विरोध कर रहे हैं।

पी चिदंबरम ने भी यही काम किया। उन्होंने बताया कि वन संरक्षण संशोधन कानून लागू होने से कितना नुकसान होना है। इस बिल में सहारे बड़े वन क्षेत्र को संरक्षित श्रेणी से हटाया जा रहा है। इसके कई प्रावधान सुप्रीम कोर्ट के फैसलों और 2006 के वन अधिकार कानून के उलट हैं। इसमें यह प्रावधान किया गया है कि अंतरराष्ट्रीय सीमा के एक सौ किलोमीटर के अंदर जंगल की जमीन राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी परियोजनाओं के लिए इस्तेमाल की जा सकती है। सोचें, यह कानून बनने के बाद समूचा पूर्वोत्तर और हिमालय क्षेत्र कितना प्रभावित होगा? इसका पूरा वन क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय सीमा से सौ किलोमीटर के दायरे में ही आता है। विपक्ष चाहता था कि बिल पर संसद की स्थायी समिति में विचार हो लेकिन सरकार ने स्थायी समिति की बजाय इसे संयुक्त प्रवर समिति को भेजा और वहां अपने बहुमत के दम पर इसे मंजूर करा लिया। प्रवर समिति के छह विपक्षी सांसदों ने अपनी कड़ी आपत्ति दर्ज कराई लेकिन इस पर ध्यान नहीं दिया गया। इस बिल के कानून बनने से वन आच्छादित क्षेत्र में कमी आएगी, खास कर सीमावर्ती इलाकों में।

इसी तरह मल्टी स्टेट सहकारिता संशोधन कानून है, जिसमें यह प्रावधान किया गया है कि केंद्र सरकार की ओर से बनाया गया एक प्राधिकरण सभी सहकारिता सोसायटीज के चुनाव कराएगा। इसके अलावा यह भी प्रावधान किया गया है कि इसके सदस्यों की किसी भी शिकायत का निवारण केंद्र सरकार की ओर से नियुक्त ओम्बुड्समैन करेगा। तीसरा कानून, जिसका जिक्र पी चिदंबरम ने किया वह दिल्ली सरकार के अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग से जुड़ा है। इसका नाम जीएनसीटीडी संशोधन कानून है। सुप्रीम कोर्ट ने मई में एक फैसले के जरिए दिल्ली सरकार के अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग का अधिकार दिल्ली सरकार को दिया था। लेकिन बाद में केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश के जरिए इस फैसले को पलट दिया और अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग के लिए तीन सदस्यों का एक प्राधिकरण बना दिया। मुख्यमंत्री इस प्राधिकरण के अध्यक्ष होंगे और उनके अलावा दो वरिष्ठ अधिकारी उसके सदस्यों होंगे। फैसला बहुमत से होगा और अंतिम फैसला उप राज्यपाल करेंगे। आमतौर पर माना जा रहा है कि दिल्ली की चुनी हुई सरकार के अधिकार छीन कर परदे के पीछे से सरकार चलाने की केंद्र की योजना का यह भी एक पार्ट है।

दिलचस्प बात है कि आम आदमी पार्टी ने इस बिल को ऐसे पेश किया, जैसे यह इस देश के सामने मौजूद सबसे बड़ा संकट हो। उसके नेताओं ने खुलेआम कहा कि जो इस बिल का साथ दे रहा है वह देशद्रोही है और विपक्ष के नेता खुशी-खुशी इस नैरेटिव को बढ़ाने में उसके साथ शामिल हो गए। संसद के मानसून सत्र में यह एकमात्र बिल है, जिस पर दोनों सदनों में हुई चर्चा में विपक्ष के सांसद शामिल हुए। सोचें, अगर विपक्षी पार्टियां मणिपुर के मसले पर प्रधानमंत्री का बयान मांगने के अपने अभियान को स्थगित करके या सीमित करके दिल्ली सरकार से जुड़े बिल पर बहस में हिस्सा ले सकती थीं तो उन्होंने बाकी जरूरी विधेयकों पर बहस में हिस्सा क्यों नहीं लिया? जीएनसीटीडी संशोधन बिल पर बहस से विपक्ष का व्रत नहीं टूटा और वन संरक्षण या मल्टी स्टेट सहकारिता या जन विश्वास या डाटा संरक्षण या माइंस एंड मिनरल्स बिल पर बहस में हिस्सा लेने से व्रत टूट जाता?

जिस तरह से पी चिदंबरम ने बिल पास होने के बाद लेख लिख कर रूदन किया है उसी तरह कांग्रेस की प्रवक्ता और सोशल मीडिया सेल की इंचार्ज सुप्रिया श्रीनेत ने ट्विट करके जन विश्वास बिल की आलोचना की। ध्यान रहे यह बिल आम आदमी के लिए बेहद चिंताजनक है। इसमें प्रावधान है कि अगर किसी घटिया दवा से इलाज की वजह से मरीज की तबियत और खराब होती है या उसका निधन होता है तो दवा बनाने वाली कंपनी में किसी पर कोई कार्रवाई नहीं होगी। किसी को गिरफ्तार नहीं किया जाएगा। उसे सिर्फ जुर्माना लगाया जाएगा। यह बात सुप्रिया श्रीनेत ने अपने ट्विट में भी कही। तो सवाल है कि उनकी पार्टी ने यह बात संसद में क्यों नहीं उठाई? जिस समय बिल पास हो रहा था उस समय कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियों के सांसद क्या कर रहे थे? किसी भी विपक्षी सांसद ने एक शब्द इस विधेयक के बारे में नहीं बोला है।

इसी तरह डाटा संरक्षण बिल का मामला है। इसके प्रावधानों को लेकर अनेक सामाजिक कार्यकर्ता सवाल उठा रहे हैं। सूचना अधिकार के लिए लडऩे वाले कार्यकर्ताओं ने इस पर आपत्ति की है लेकिन विपक्ष ने लोकसभा में इस पर बहस में हिस्सा नहीं लिया? यह बिल आम नागरिक के निजता के अधिकार को कमजोर करता है। यह बिल सूचना के अधिकार कानून को कमजोर करता है। लेकिन इसमें सबसे ज्यादा प्रचार इस बात का किया जा रहा है कि सरकार डाटा स्टोर करने वाली कंपनियों पर किसी गड़बड़ी में ढाई सौ करोड़ रुपए का जुर्माना लगा सकती है। इसका आम आदमी के लिए कोई मतलब नहीं है। उसके मतलब की बात यह है कि इस बिल में सरकार और सरकारी एजेंसियों को आम आदमी का डाटा हासिल करने और उसकी निगरानी करने के लिए कई तरह की छूट दी गई है। इसमें कहा गया है कि किन किन स्थितियों में सरकार और उसकी एजेंसियों के ऊपर यह कानून लागू नहीं होगा। पहले 2022 में जब यह बिल आया था तब संयुक्त संसदीय समिति ने इस पर विचार किया था तब 90 से ज्यादा संशोधन सुझाए गए थे लेकिन सरकार ने संशोधित बिल लाने की बजाय बिल वापस ले लिया और 2023 में नया बिल पेश किया, जिसमें वो सारे प्रावधान रख लिए गए, जिनका संयुक्त संसदीय समिति में विरोध हुआ था।

सो, इसमें कोई संदेह नहीं है कि सरकार मनमाने तरीके से कानून बना रही है और शक्तियों का केंद्रीकरण कर रही है। लेकिन इस काम में कुछ हद तक विपक्ष भी शामिल है क्योंकि विपक्षी पार्टियां अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं कर रही हैं। वे राजनीतिक लाभ पहुंचाने वाले मुद्दों को पकड़ कर संसद परिसर में प्रदर्शन करती रहती हैं ताकि अधिकतम मीडिया कवरेज मिले। जबकि उनकी विधायी जिम्मेदारी यह है कि वे सदन में बैठें और सरकार को विधेयकों के मामले में मनमानी करने से रोकें।

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