पहाड़ की सबसे ऊंची चोटी पर बना अनोखे चमत्कार के लिए विख्यात माँ रशुलांण दीबा मंदिर

माँ रशुलांण (रंशुली) दीबा


माँ रशुलांण दीबा मंदिर उत्तराखंड, पौड़ी गढ़वाल जनपद के पोखड़ा ब्लॉक, एकेश्वर ब्लॉक, बीरोंखाल ब्लॉक तथा थैलीसैण ब्लॉक के बीच में सकन्याण नाम की पहाड़ी पर स्थित है जो कि रशूली (मोर पंखीनुमा) के घने जंगलो से घिरी है इसे दीबा डांडा भी कहा जाता है | यहाँ माता की पूजा (अठवाड) का आयोजन हर 3 या 5 साल में एक बार किया जाता है | यह आयोजन बीरोंखाल ब्लॉक के गढ़कोट ग्रामसभा जिसमे गढ़कोट, चिणागैरी, बांगरझल्ला, गुडेलखिल मल्ला, छांचीरौ, सलमाण, घसेरा तल्ला, घसेरा मल्ला, सत्यनगर तल्ला, सत्यनगर मल्ला, भैंचुली, आदि गाँव के द्वारा किया जाता है |

पूजा (अठवाड) का शुभारम्भ गाँव गढ़कोट से होता है सबसे पहले पंडितो द्वारा दीबा माँ का पाठ किया जाता है और फिर दूसरे दिन भी प्रातः माँ का पाठ किया जाता है और फिर दोपहर गढ़वाल के पारंपरिक बाध्य यंत्रो ढोल दमो, निशाण के साथ जात निकलती है जिसमे गुडेलखील मल्ला, बंगरझल्ला चिणागैरी गढकोट आदि गाँव के सभी लोग अपनी अपनी जात के साथ सत्यनगर मल्ला पहुंचते है | सत्यनगर मल्ला पहुँचने के बाद सबसे पहले सभी दिशा – ध्याणियों का स्वागत किया जाता है | और वहाँ पर रात के भोज का आयोजन किया जाता है जिसमे सबसे पहले दिशा – ध्याणियों को भोजन कराया जाता है तत्पश्चात सभी मित्रों, अथितियों एवं रिश्तेदारों को भोजन कराया जाता है और अंत में सभी ग्राम सभा वासी भोजन करते है | रात्रि भोज के पश्चात् जगराता होता है और बाहर धुनी लगाई जाती है और ढोल दमाऊ की थाप पर देवी देवताओं का आवाहन किया जाता है और निरंकार भगवान के भण्डार (मंदिर) के अन्दर जागर द्वारा पौराणिक जागर कथा लगाकर डौंर थाली बजाकर सभी देवी देवताओं को नाचाते है और प्रातः ब्रह्ममुहूरत में वहां से माता दीबा की जात पैदल चलकर माता के मंदिर तक पहुंचती है | रास्ते में सबसे पहले पाणीरौला से पानी लेकर जाया जाता है पाणीरौला के बाद भैंसगल्या धार, कजेमौर्न्यागैरी, सकन्याण और खाडूमर्यां पड़ता है खाडूमर्यां के पास भैरों के नाम का खाडू मारा जाता है | खाडूमर्या के पास ही माता का मंदिर पड़ता है | वहां पहुंचकर माँ दीबा भगवती की पूजा की जाती है और उसके बाद सबसे पहले दिशा – ध्याणी माता को अपनी भेंट चढाते है दिशा – ध्याणियों की भेंट के पश्चात ही सभी भक्तगणों द्वारा भेंट चढ़ाई जाती है और अंत में सभी लोग प्रसाद ग्रहण कर वापस सत्यनगर मल्ला पहुँच कर भंडारे का भोग लेकर माता का आशीर्वाद प्राप्त करते है और अपने अपने गाँव व शहर को वापिस हो जाते है | इसके अतिरिक्त चारों ब्लाक के 12 पट्टीयों के अन्य गाँवो में भी दीबा माँ की पूजा होती है और सभी जगह इसी तरह से दीबा माँ पूजा की जाती है और सभी का अपना अलग अलग रूट होता है सभी अपने अपने सुगम रूट से जात ले जाकर माता के मंदिर में पहुचते है| इन सब में गढ़कोट ग्रामसभा का (अठवाड) प्रमुख है | माता रानी के मंदिर में पहुचने के लिए इस रूट के अतिरिक्त कई अन्य रास्ते है जिसमे पट्टी –किमगडीगाड, ब्लाक– पोखड़ा के झलपाडी गावं से प्रमुख है यहाँ से पैदल यात्रा शुरू होती है यह यात्रा एक निश्चित स्थान झलपडी गावं के समीप (रुसैईदांग) के बाद नंगे पाँव पैदल की जाती है | कुछ श्रढालू पोखड़ा से भी अपनी यात्रा शुरू करते है | रात को घनघोर जंगलो के दुर्गम रास्तों का सफ़र अँधेरे में श्रढालू आराम से बगैर रास्ता भटके कर लेते है | और यहाँ प्रातः काल में ही माता के दर्शन किये जाते है |

पूर्व में यहाँ पर मंदिर का बहुत छोटा सा स्वरूप था | सन 2009 में गढ़कोट ग्रामसभा के सभी भक्तगणों द्वारा इस पुराने मंदिर का जीणोंद्वार किया गया और मंदिर को एक नया दिव्य एवं भव्य स्वरुप दिया गया है जो कि हर किसी को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है | नये मंदिर के निर्माण एवं सुन्दरीकरण में लगभग 22 लाख का खर्च हुआ है जोकि गढ़कोट ग्रामसभा द्वारा किया गया है | गढ़कोट ग्रामसभा द्वारा इस मंदिर का पौड़ी जिलाधिकारी कार्यालय में पंजीकरण भी कराया गया है जिसकी संख्या 18076 पत्रांक संख्या जीoपीoजीo – 1451 तथा नवीनीकरण संख्या 61 सन 2017 -18 है |

(साभार ग्राम सभा गढ़कोट गांव सत्यनगर निवासी लोकगायक श्री ओम ध्यानी जी)

माता रानी के मंदिर में पहुचने के लिए इस रूट के अतिरिक्त कई अन्य रस्ते है जिसके माध्यम से उपरोक्त चारो ब्लाक के अन्य गाँवो में जब भी दीबा भगवती की पूजा होती है तो इसी तरह से माता पूजा की जाती है और माता की जात को अपने अपने सुगम रूट से ले जाकर माता के मंदिर में पहुचते है | जिसमे पट्टी –किमगडीगाड, ब्लाक– पोखड़ा के झलपाडी, गुडियलखिल मल्ला , सत्यनगर,जिवई ,नैंनस्यूं ,ग्वारी ,दमदेवल आदि गावं से भी पैदल यात्रा की जाती है। कुछ श्रढालू पोखड़ा से भी अपनी यात्रा शुरू करते है जो रास्ता ढूंडिगाड से होते हुए जहाँ पर तिलकिनी दीबा मंदिर से होते हुए रसुलांण तक जाता है | यहाँ से ज्यादातर श्रढालु रात को पैदल चढ़ाई करते हैं और प्रातः काल में ही माता के दर्शन करने के पश्चात् सूर्योदय के समय सूर्य भगवान के अद्दभुत एवं अकल्पनीय दर्शन करते है | यहाँ से वृहत हिमालय की गगन चुम्बी पर्वत श्रीखलाओं और कैलाश पर्वत के बीच से सूर्य का उद्गम होता है | जिसमे सूर्यदेव पहले लाल रंग, फिर केसरिया और अंत में चमकीले सुनहरे रंग में अपने स्वरुप बदलकर दर्शन देते है । यहाँ से सूर्य किसी को शिशु की तरह दिखता है और फिर घूमती हुई कांसे की थाली जैसे दिखता है। सूर्यादय के इस स्वरुप को देखने के लिए श्रढालू ब्रह्म मुहूरत में ही यहाँ पर पहुँच जाते है | यहाँ पर मई और जून के महीने में जाना उचित माना जाता है। इन महीनों में भी यहाँ पर बड़ी कडाके की ठंड पड़ती है इसलिए इन महीनों में भी यहाँ की यात्रा को गर्म कपड़ों की व्यवस्था के साथ करना पड़ता है। पूजा में नारियल और गुड (भेली) प्रसाद के रूप में चढाया जाता है | बहुत से श्रढालु चांदी के छत्र भी चढाते है | माता के मंदिर में रशूली नाम के वृक्ष के पते में प्रसाद लेना शुभ माना जाता है। मान्यता है कि इस रशूली के पेड़ की पत्तियों को हाथ से तोड़कर माता का प्रसाद ग्रहण करते हैं। इस पेड़ पर कभी भी हथियार नहीं चलाया जाता है | श्रढालू मंदिर के बगल में सुंदर रशूली के जंगल से रशूली की मोर पंखीनुमा पत्तियों को अपने साथ प्रसाद के रूप में लाते है और अपने घर के चारों कोनों या पूजाघर में सम्भाल के रखते है |

दीबा माँ कैसे प्रकट हुई :

शोधकर्ता ग्राम सभा गढ़कोट निवासी श्री ओम ध्यानी जी जिन्होंने लगभग 25 सालों तक इस पर शोध किया और उनके अनुसार के मलेथा गांव में कालूसिंह भंडारी के यहाँ माधोसिंह भंडारी का जन्म हुआ था जिनकी नौ खंभों की हवेली (तिवारी) थी | माधोसिंह भंडारी गढ़वाल के राजा महीपत शाह के बहादुर सेनापतियों में से एक थे जिन्हें विशिष्ट योद्धाओं में स्थान प्राप्त था | कहा जाता है कि एक बार जब वह श्रीनगर दरबार से लगभग पांच मील की दूरी पर स्थित अपने गांव मलेथा पहुंचे तो उन्हें काफी भूख लगी थी। उनकी पत्नी द्वारा उन्हें रूखा सूखा खाना दिया गया | जब उन्होंने सूखा खाना दिया जाने की बजह पूछा तो उनकी पत्नी ने ताना मारा कि जब गाँव में पानी ही नहीं है तो हरी भरी सब्जियां ओर अनाज कैसे पैदा होगा | माधोसिंह को यह बात चुभ गयी। और रात भर उन्हें नींद नहीं आयी। मलेथा के काफी नीचे अलकनंदा नदी बहती थी जिसका पानी गांव में नहीं लाया जा सकता था। गांव के दाहिनी तरफ छोटी नदी या गदना बहता था जिसे चंद्रभागा नदी कहा जाता है। चंद्रभागा का पानी भी गांव में नहीं लाया जा सकता था क्योंकि बीच में पहाड़ था। माधोसिंह ने इसी पहाड़ के सीने में सुरंग बनाकर पानी गांव लाने की ठानी ली थी। उन्होंने श्रीनगर दरबार और गांव वालों के सामने भी इसका प्रस्ताव रखा था लेकिन दोनों जगह उनकी खिल्ली उड़ायी गयी थी। आखिर में माधोसिंह अकेले ही सुरंग बनाने के लिये निकल पड़े थे। माधोसिंह शुरू में अकेले ही सुरंग खोदते रहे, लेकिन बाद में गांव के लोग भी उनके साथ जुड़ गये। कहा जाता है कि सुरंग खोदने में लगे लोगों का जोश बनाये रखने के लिये तब गांव की महिलाएं शौर्य रस से भरे गीत गाया करती थी। माधोसिंह की मेहनत आखिर में रंग लायी और सुरंग बनकर तैयार हो गयी। यह सुरंग आज भी इंजीनियरिंग का अद्भुत नमूना है और मलेथा गांव के लिये पानी का स्रोत है।

कहते हैं कि जब सुरंग बनकर तैयार हो गयी तो काफी प्रयासों के बावजूद भी चंद्रभागा नदी का पानी उसमें नहीं गया। सभी गांववासी परेशान थे। रात को माधोसिंह के सपने में उनकी कुलदेवी प्रकट हुई और उन्होंने कहा कि सुरंग में पानी तभी आएगा जब वह अपने इकलौते बेटे गजेसिंह की बलि देंगे। माधोसिंह हिचकिचा रहे थे लेकिन जब गजेसिंह को पता चला तो वह तैयार हो गया और उसने अपने माता पिता को भी मना लिया। गजेसिंह की बलि दी गयी और पानी सुरंग में बहने लगा। कहते हैं कि इसके बाद माधोसिंह को पुत्र वियोग बहुत दुःख देने लगा और वे वापस श्रीनगर आ गये और फिर कभी अपने गांव नहीं लौटे | पुत्र वियोग में ही उनकी पत्नी ने श्राप दिया था कि आगे से मलेथा में माधो सिंह जैसा कोई वीर भड पैदा न हो जो अपने पुत्र कि ही बलि दे दें | इस श्राप के डर से उनके परिवार के कुछ भाई बन्धुओं मलेथा गाँव छोड़कर पौड़ी गढ़वाल के पट्टी –किमगडीगाड, ब्लाक– पोखड़ा के चोपड़ा एवं श्रीकोट गाँव में बस गये | यह सोचकर कि यदि हम यहाँ रहते है तो शायद श्राप के प्रकोप से हमारी पीढ़ी आगे पनप नहीं पायेगी | कुछ समय बाद श्रीकोट के काला भंडारी परिवार में एक कन्या का जन्म हुआ और जब वह जवान हुई तो उनका रिश्ता चौथान क्षेत्र में तय हुआ था और मंगसीर महीने के अंतिम तारिक को शादी होनी तय हो गई | लगभग नौ बीसी याने कि 9X20 = 180 बरातियां बारात लेकर तय तिथि को श्रीकोट गाँव पहुंचें | वापिसी में जब बारात सकन्याण पहाड़ी के पास से गुजर रही थी तो तो अचानक भारी हिमपात होने लगा और सभी बाराती वहां बर्फ में दब गयें | उस समय दूर संचार ब्यवस्था न होने के कारण दुल्हे पक्ष वालो ने समझा कि बर्फबारी के चलते शायद बारात वही रुक गई होगी और दुल्हन पक्ष वालों ने समझा कि बाराती समय पर अपने घर पहुँच गये होंगे | दो चार दिन बाद तक जब बारात वापस नहीं आयी तो तब सभी बारातियों को ढूँढने निकल पड़े परन्तु बारातियों का कुछ पता नहीं चला | कुछ दिन बाद श्रीकोट गाँव में दोपहरी में ही बाघ लड़ते हुए दिखने लगे | जिससे भंडारी परिवार वालों को लगा कि कुछ गड़बड़ है तो वे नजदीक में पूछ करने वाले (बक्य्या) के पास गये तो तब बक्य्या ने बताया कि आपकी बेटी आप पर हंत्या लगी हुई है क्यूंकि उसकी शादी तो हो गई थी पर वह हिमपात के चलते रस्ते में ही मर गई थी और ससुराल तक नहीं पहुँच पाई थी | तब जागरी बुलाकर उसका आवाहन (घड्यलू) दिया गया और उसको नचाया गया | हंत्या नाचते समय वह देवी के रूप में नाच गई और कही कि मुझे ऊंचा स्थान चाहिए जहाँ से चौखम्भा हिमालय दिखाई दे और साथ ही 7 घाटियों (गैरी) में रशुली के पेड़ हो वहीँ पर मुझे मानाने के लिए आना | परिवार वाले जब उस स्थान को ढूंढने के लिए निकले तो तब जिस जगह पर बर्तमान में मंदिर स्थापित है उसी की जगह में त्रिशूल और दिया मिला और वही से साक्षात् चौखम्भा हिमालय दिखाई दे रहा था और 7 घाटियों (गैरी) में रशुली के पेड भी मिले तब जाकर माता को उस जगह पर स्थान दिया गया | आसपास रशुली के पेड़ / जंगल होने के कारण माँ का नाम माँ रसुलाण दीबा पड़ा |

कुछ अन्य धारणाओं के अनुसार :

  1. यहाँ के प्रसाद रसूली पेड़ के पत्ते हैं | बताया जाता है कि चौथान क्षेत्र से श्रीकोट बारात उसी रास्ते आयी थी जहा बर्तमान में माता का मंदिर है | और जो बारात वापसी में बर्फ़बारी में दब गयी थी वही रसूली के पेड़ है और उस समय बारातियों की संख्या के बराबर मनुष्यों की आकृति में पेड़ दिखे थे , उनमें से कोई ऐसा लगता था मानो कोई ढोल पकड़ा, कोई दमाऊं तो कुछ मानो नाच रहे हों के रूप में दिखाई दिये | जो कि अब भी उन्ही रसूली के पेड़ो में दिखती है इसलिए इन पेड़ो पर हथियार से काटने पर खून जैसा निकलता है | मंदिर के आस पास के पेड़ केवल भंडारी जाती के लोग ही काट सकते है यदि कोई अन्य लोग काटें तो पेड़ो से खून निकलता है।
  2. चोपड़ा एवं श्रीकोट के भंडारी लोग आज भी पुराने मंदिर में ही पूजा करते है और रशूली के पत्तो से ही मंदिर की छत बनाते है |
  3. रास्ते पर पानी के स्रोत से मात्र एक गागर (गगरी) पानी इस मन्दिर तक ले जाते हैं और मात्र एक गागर का पानी अनेकों श्रढालुओ की प्यास बुझा देता है और उसी जल से लोग भण्डारा भी करते हैं । गढ़वाली में कह सकते है कि इस गागर का पाणी ‘फारा’ होता है। और जिस गागर में पानी भरकर मंदिर तक ले जाया जाता है उसे पानी भरने के स्थान से मंदिर तक कही भी नीचे जमीन पर नहीं रखा जाता है सब श्रढालु पानी भरी गागर को एक एक कर अपने कंधे में रखकर मंदिर तक ले जाते है और मंदिर में भी उस गागर को एक ही जगह पर रखा जाता, उसको वहाँ से हिलाते तक नहीं है और मात्र एक गागर का पाणी अनेकों श्रढालुओ की प्यास बुझा देता है
  4. घुत्तू घनसाली के भूटिया और मर्छ्या जनजाति के लोग यहाँ अपनी बकरियां चराने के लिए आते थे और माँ दीबा के दर्शन कर आशीर्वाद लेना नहीं भूलते थे और माँ के नाम का सुमिरन करते रहते थे जिसकी वजह से वे कई रातों तक जंगलो में सुरक्षित रहते थे |
  5. बलि हेतु बकरों को रात को जहाँ से यात्रा की चढ़ाई शुरू होती है खुला छोड़ दिया जाता है और बकरे सुबह मंदिर तक अपने आप पहुँच जाते है |
  6. दीबा माँ भक्तो को सफ़ेद बालो वाली एक बूढी औरत के रूप में दर्शन दे चुकी है |
  7. दीबा माँ पाणीरौला वाले पानी के स्रोत (पंदेरे) में स्नान करने के लिए आती थी | इस पंदेरे में जूठा बर्तन, कपडे आदि नहीं धोये जाते है |
  8. यदि कोई किसान अपने बैलों को खेत में ज्यादा देर तक जुताई में रखता है तो दोपहर बाद दीबा माँ बैलो को खोलने के लिए आवाज देती थी |
  9. गाँव में दीबा माँ के नाम की एक सीमा बांध दी जाती थी जिसे गढ़वाली में (केर) कहते है | उस सीमा के अंदर यदि कोई अशुद्धी होती थी तो गाँव के आस पास बाघ दिखाई देने लगता है फिर कुन्ज और धूप बत्ती दिखाकर बाघ केर का एक चक्कर लगाकर चला जाता था |यदि कोई दर्शनार्थी के परिवार में मिर्त्यु या नये बच्चे के जन्म के कारण अछुता है ओर शुद्धीकरण नहीं हुआ है तो वह कितना भी प्रयास कर ले माँ के दर्शन नहीं कर पाता |
  10. यदि कोई दर्शनार्थी छोटा बच्चा, बुजुर्ग अवस्था या अस्वस्थ है और यात्रा कर रहा है तो उसे चढ़ाई चढने में किसी प्रकार की समस्या नहीं होती है |
    पहले यहाँ की यात्रा बहुत कम लोग करते थे और जो भी करते थे नियमबद्ध तरीके से करते थे | जब भी छेत्र के किसी गाँव में दीबा माँ की पूजाई होती थी तो पूरी जात के साथ नजदीक गाँवों के ज्यादातर लोग भी उसी समय यात्रा करते थे | उस समय संसाधनों की बहुत कमी थी | मोटर मार्ग केवल गवानी तक ही था तो लोग जहाँ से उनको नजदीक पड़ता था वही से चढाई शुरू कर लेते थे | कुछ लोग झलपाडी गावं के बजाय ड्वीला गाँव होते हुए भी यात्रा कर लेते थे | उस समय रुसैईदांग आखिरी पड़ाव था जहाँ पर यात्री अपना खाना, पीना और शौच कर अपने चप्पल वही पर छोड़ जाते थे और नंगे पाँव यात्रा करते थे | आज के समय मे बहुत दूर दूर से लोग यहाँ की यात्रा कर रहे है और यात्रियों की संख्या दिन प्रतिदिन बढती जा रही है | यात्री अपना खाना पीना और चप्पले रुसैईदांग में न छोड़कर मंदिर के निकट बने शेड तक लेकर जा रहे है | साथ ही पहले किसी खास बर्ग के लोगों को यहाँ की यात्रा वर्जित थी पर आधिनिकता के दौर में सभी बर्ग के लोग यहाँ यात्रा कर रहें है |
    स्थानीय जन प्रतिनिधियों द्वारा इस मंदिर को पर्यटन विकास से जोड़ने कि कवायत तेज हो रही है जिससे क्षेत्र का विकास के साथ साथ स्थानीय लोगो को भी रोजगार कर अवसर मिलेगा | मंदिर तक पहुँचने हेतु सुगम परिवहन जिसमे पक्का रास्ता, रोप वे, बिजली, स्टीट लाइट्स, सोलर लाइट्स, विश्राम घर, यात्री शेड, पेयजल, शौचालय, होटल आदि की ब्यवस्था के साथ साथ पुलिस सुरक्षा, पर्यटन सूचना एवं सुविधा केंद्र, मोबाइल एवं इन्टरनेट नेटवर्क, ऑनलाइन टिकट बुकिंग, आदि हो जाने पर हर सृधालू हर सीजन में यहाँ की यात्रा कर सकेंगे | मंदिर से नजदीक बाजार गढकोट, चौबट्टाखाल और पोखड़ा में हैलीपैड हेतु उचित समतल मैदान है जहाँ से हैलीकॉप्टर सेवा शुरू हो सकती है | स्थानीय टूर ऑपरेटर के रूप में भी अच्छा रोजगार प्राप्त हो सकता है क्यूंकि आजकल तकनीकी युग में पर्यटक यात्री पैकेज टूर में जयादा रूचि रखते है और अपनी यात्रा की सारी जिम्मेदारी टूर ऑपरेटर पर छोड़ देते है टूर पैकेज में होने पर टूर ऑपरेटर रास्ते में पड़ने वाले सिद्धबलि मंदिर, दुर्गा माता मंदिर, लैंसडाउन, भैरवगढ़ी, ताडकेश्वर मंदिर, ज्वाल्पा देवी मंदिर, एकेश्वर महादेव, जन्दा देवी, साथ में जैसे चोंद्कोटगढ़, चेत्रगढ़, लंगूर गढ़ के भर्मण आदि को अपने पैकेज में शामिल कर सकते है ज्यादा दिन के टूर पैकेज से स्वाभाविक रूप से हर सम्बंधित ब्यवसाय ज्यादा तररकी करेंगे |
    इस सम्बद्ध में उत्तराखंड के पर्यटन मंत्री श्री सतपाल महाराज जी ने भी इस मंदिर को पर्यटन से जोड़ने को आश्वासन दिया है।
    माँ दीबा भगवती की कृपा सभी भक्तो पर बनी रहे |

मंदिर पहुचने के रास्ते :
झलपाडी गावं से

  1. कोटद्वार रेलवे स्टेशन से दुगड्डा, गुमखाल, सतपुली, पाठीसैन, जन्दादेवी, नौगौंखाल, चौबट्टाखाल, पंचवटी से गवानी पहुँचाना पड़ता है |
  2. ऋषिकेश रेलवे स्टेशन से ब्यासी, तीन धारा, देवप्रयाग होते हुए सतपुली पहुंचना पड़ता है फिर सतपुली से पाठीसैन, जन्दादेवी, नौगौंखाल, चौबट्टाखाल, पंचवटी से गवानी पहुँचाना पड़ता है |
    गवानी से एक विशेष लिंक रोड से कुटियाखाल, धारागाँव से होते हुए झलपाडी गावं तक पहुँचती है इसके बाद की यात्रा पैदल ही करनी पड़ती है

फरसारी – सत्यनगर मल्ला से :

  1. कोटद्वार रेलवे स्टेशन से दुगड्डा , गुमखाल , सतपुली, रीठाखाल, संगलाकोटी, पोखड़ा, मटगल, बगडी, घनियाखाल, वेदीखाल, नंदाखेत, फरसारी से लिंक रोड गढ़कोट, ख्वाड, सत्यनगर तल्ला, सत्यनगर मल्ला पहुचना पड़ता है |
  2. राम नगर, गर्जियादेवी, मोहन, चिमटाखाल, मर्चुला, सल्ड महादेव, खीरडीखाल, अदालीखाल, जड़ाऊंखांद, धुमाकोट, कोठिला, मैठाणाखाल, बीरोंखाल, पडिंडा, स्युंसी, बैजरो, फरसारी से लिंक रोड गढ़कोट, ख्वाड, सत्यनगर तल्ला, सत्यनगर मल्ला पहुचना पड़ता है |
    फिर सत्यनगर मल्ला यात्रा पैदल ही करनी पड़ती है |

पोखड़ा गावं से :

  1. कोटद्वार रेलवे स्टेशन से दुगड्डा , गुमखाल , सतपुली, रीठाखाल, संगलाकोटी, पोखड़ा, पहुचना पड़ता है| फिर पोखड़ा से पैदल यात्रा ही करनी पड़ती है |

संकलन : धर्मवीर सिंह रावत, ग्राम – मालकोट, तहसील – चौबट्टाखाल, पौड़ी गढ़वाल , उत्तराखंड |

सूत्रधार : लोकगायक ओम ध्यानी, ग्राम सभा गढ़कोट सत्यनगर वासी

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